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Monday, April 24, 2017

हंसराज रहबर की पुस्तक 'नेहरू बेनकाब' का अंश-४

* क्रमशः :- "जवाहरलाल को और बच्चों की तरह स्कूल नहीं भेजा गया, उनकी शिक्षा अंग्रेज महिलाओं द्वारा घर पर ही हुई। जब वह ग्यारह साल के हुए तो एफ. टी. ब्रुक्स नाम के एक अंग्रेज अध्यापक को उनकी शिक्षा के लिए नियुक्त किया गया। उस समय ये लोग 'आनंद भवन' में रहते थे, जो एक शहाना महल था और मोतीलाल नेहरू ने हाल ही में बनवाया था। ब्रुक्स भी उनके साथ ही आनंद भवन में रहता था। इस व्यक्ति की संगति ने जवाहरलाल को कई तरह से प्रभावित किया। पहली बात तो यह कि जवाहरलाल को किताबें पढ़ने की चाट लगी और उन्हें केरोल तथा किपलिंग की पुस्तकें खास तौर पर पसंद आई। सर्वेंटीज का विख्यात उपन्यास 'डान क्विकजाट' भी इन्हीं दिनों पढ़ा। दूसरे ब्रुक्स ने विज्ञान के रहस्यों से भी जवाहरलाल का परिचय कराया। जवाहरलाल नेहरू ने लिखा है कि आनंद भवन मे विज्ञान की प्रयोगशाला खड़ी कर ली गई थी, जिसमें वह घंटों वस्तु-विज्ञान और रसायन - शास्त्र के प्रयोग किया करते थे, जो बड़े दिलचस्प मालूम होते थे। तीसरी बात यह है कि ब्रुक्स की संगत में जवाहरलाल पर थियोसाॅफी का सवार हुआ और कुछ समय तक बड़े जोर से सवार रहा। क्रमशः

Sunday, April 23, 2017

*हंसराज रहबर की पुस्तक "नेहरू बेनकाब" का अंश क्रमशः - 3

"मोतीलाल दिलेर तबियत के शाह-खर्च आदमी थे, फिर उन्हें अपने-आप पर यह भरोसा था कि जितना खर्च करेंगे उससे कहीं अधिक बात की बात में कमा लेंगे। नतीजा यह हुआ कि परिवार का जीवन देखते ही देखते पूर्ण रूप से विलायती सांचे में ढल गया। इसी वातावरण में जवाहरलाल नेहरू का जन्म 14 नवंबर, 1889 को हुआ। जवाहरलाल मोतीलाल के इकलौते बेटे थे, जाहिर है कि लाडले बेटे थे। विजय लक्ष्मी और कृष्णा जवाहरलाल की दो बहने थी, जो क्रमशः ग्यारह और चौदह साल बाद पैदा हुईं। वैसे नेहरू - परिवार एक भरा-पूरा परिवार था। जवाहरलाल के बहुत - से चचरे भाई-बहन थे। लेकिन उम्र में सब काफी बड़े थे और स्कूल जाते थे। जवाहरलाल उन सबका नन्हा-मुन्ना खिलौना था। जवाहरलाल का लालन-पालन बिलकुल अंग्रेजी ढंग से हुआ और उनकी देख-रेख के लिए अंग्रेज आया रखी गयी। हर साल जवाहरलाल की वर्षगांठ बड़े धूम-धाम से मनाई जाती थी। उस दिन उन्हें गेहूं तथा दूसरे अनाज से एक बहुत बड़ी तराजू में तोला जाता था और यह अनाज गरीबों में बांट दिया जाता। मां अपने लाडले को अपने ही हाथों से नहला - धुलाकर नए कीमती कपड़े पहनती, फिर जवाहरलाल को तरह - तरह के उपहार दिये जाते और रात को शानदार दावत होती थी, जिसमें शहर के रईसों और वकीलों के अलावा मोतीलाल नेहरू के अंग्रेज दोस्त भी शामिल होते थे।"*

Saturday, April 22, 2017

हंसराज रहबर की पुस्तक 'नेहरू बेनकाब' का अंश-2

*"मोतीलाल पहले कानपुर में और फिर इलाहाबाद में पढ़ते रहे। पढ़ने-लिखने के बजाय खेल - कूद में उनकी ज्यादा दिलचस्पी थी। काॅलेज में वह सरकश लड़कों के अगुआ समझे जाते थे। 'मेरी कहानी' में जवाहरलाल ने लिखा है :"उनका झुकाव पश्चिमी लिबास की तरफ हो गया था और सो भी उस वक्त जबकि हिंदुस्तान में कलकत्ता और बंबई जैसे बड़े शहरों को छोड़कर कहीं इसका चलन नहीं था। वह तेज मिजाज और अक्खड़ थे, तो भी उनके अंग्रेज प्रोफेसर उनको बहुत चाहते थे और अक्सर मुश्किलों से बचा लिया करते थे। वह उनकी स्पिरिट को पसंद करते थे। उनकी बुद्धि तेज थी और कभी - कभी एकाएक जोर लगाकर वह क्लास में भी अपना काम ठीक चला लेते थे।" मोतीलाल ने मैट्रिक का इम्तहान इलाहाबाद में पास किया, लेकिन बी. ए. का इम्तहान देने के लिए आगरे जाना पड़ा। पहला ही पर्चा मन के माफिक नहीं हुआ ;इसलिए इम्तहान छोड़-छाड़कर ताजमहल देखने चले गये। इसके बाद बी. ए. पास करने की नौबत ही नहीं आई। उनकी रुचि कानून में थी। वकालत का इम्तहान दिया और वह अव्वल दर्जे में सफल हुए। कानपुर की अदालत में वकालत शुरू की और इतनी लगन तथा मेहनत से काम किया कि थोड़े ही दिनों में अपनी काबलियत का सिक्का जमा दिया। अब भी वह खेल - तमाशों के शौकीन थे और कुश्तियों में उनकी खास दिलचस्पी थी। तीन साल के बाद वह भी कानपुर से इलाहाबाद आ गए और हाईकोर्ट में वकालत शुरु कर दी। इन्ही दिनों बड़े भाई नंदलाल नेहरू की अचानक मृत्यु हो गई। अब सारे कुटुम्ब का बोझ मोतीलाल के कंधों पर आ पड़ा। वह अपने पेशे में जी - जान से जुट गये। बड़े भाई के करीब - करीब सभी मुकदमे उन्हें मिल गए और उनमें खूब सफलता प्राप्त हुई। छोटी ही उम्र में अपने पेशे में उन्हें इतनी नामवरी हासिल हुई कि मुकदमे धड़ाधड़ आने लगे और रुपया मेंह की तरह बरसने लगा। अब उन्होंने खेल - तमाशों और दूसरी सारी बातों से ध्यान हटाकर अपनी पूरी शक्ति वकालत में लगा दी थी। कांग्रेस चाहे उन दिनों उस मध्य वर्ग के पढ़े-लिखे लोगों, डाक्टरों और वकीलों ही की जमात थी, लेकिन मोतीलाल ने इस तरफ जरा भी ध्यान नहीं दिया। बेटा लिखता है : "साधारण अर्थ में वह जरूर ही राष्ट्रवादी थे। मगर वह अंग्रेजों और उनके तौर-तरीकों के कद्रदां थे। उनका यह खयाल बन गया था कि हमारे देशवासी ही नीचे गिर गये हैं और वे जिस हालत में हैं, बहुत - कुछ उसी के लायक भी हैं। जो राजनैतिक लोग बातें ही किया करते हैं, करते - धरते कुछ नहीं, उनमें वह मन ही मन कुछ नफरत - सी करते थे। हालांकि वह यह नहीं जानते थे कि इससे ज्यादा और वे कर ही क्या सकते थे? हां, एक और खयाल भी उनके दिमाग में था, जो उनकी कामयाबी के नशे से पैदा हुआ था। वह यह कि जो राजनीति में पड़े हैं, उनमें ज्यादातर - सब नहीं - वे लोग हैं, जो अपने जीवन में नाकामयाब हो चुके हैं। " खैर, ज्यों - ज्यों आमदनी बढ़ रही थी, रहन-सहन में भी परिवर्तन आ रहा था।

Friday, April 21, 2017

हंसराज रहबर की पुस्तक 'नेहरू बेनकाब' का अंश क्रमशः -1

* "मोतीलाल का जन्म पिता की मृत्यु के तीन महीने बाद 6 मई, 1861 को आगरा में हुआ। 1857 के बाद बहुत - से परिवार दिल्ली छोड़कर इधर-उधर चले गए थे। इसी हलचल में नेहरू परिवार भी दिल्ली से आगरा चला आया था। मोतीलाल के दो भाई और थे, जो उम्र में इतने बड़े थे कि मोतीलाल के जन्म के समय वे दोनों जवान थे। अब उन लोगों ने फारसी के साथ अंग्रेजी पढ़ना शुरू कर दिया था। दिल्ली से आगरा आते समय कुछ अंग्रेज सिपाहियों ने उन्हें घेर लिया था। दोनों भाइयों की अंग्रेजी शिक्षा और वंशगत राजभक्ति के कारण ही परिवार की जान बची थी। आगरा पहुंचने के थोड़े ही दिन बाद मोतीलाल के बड़े भाई बंसीधर ब्रिटिश सरकार के न्याय-विभाग में नौकर हो गये। नौकरी के कारण जगह - जगह उनका तबादला होता रहता था, जिससे परिवार के साथ उनका संबंध कट - सा गया। जवाहरलाल के छोटे ताऊ नंदलाल नेहरू राजपूताना की एक छोटी-सी रियासत खेतड़ी के कोई दस साल तक दीवान रहे। बाद में उन्होंने नौकरी छोड़कर कानून पढ़ा और आगरे में वकालत शुरू कर दी। जब हाईकोर्ट आगरा से इलाहाबाद चला गया तो नेहरू - परिवार भी इलाहाबाद में जा बसा। मोतीलाल नेहरू का लालन-पालन इसी दूसरे भाई नंदलाल नेहरू ने किया। बच्चों में सबसे छोटे होने के कारण मोतीलाल स्वभावतः मां के लाडले थे। जवाहरलाल ने 'मेरी कहानी' में दादी का यह शब्द - चित्र प्रस्तुत किया है :"वह बूढ़ी थीं और बड़ी दबंग थीं। किसी की ताब नहीं थी कि उनकी बात को टाले। उनको मरे अब पचास वर्ष हो गए होंगे, मगर बूढ़ी कश्मीरी स्त्रियां अब भी उनको याद करती हैं और कहती हैं कि वह बड़ी जोरदार औरत थीं। अगर किसी ने उनकी मर्जी के खिलाफ कोई काम किया तो बस मौत ही समझिए।"(हंसराज रहबर की उपरोक्त उल्लेखित पुस्तक  के Chapter 'पुरखे' का अंश क्रमशः)*

Thursday, April 20, 2017

हंसराज रहबर की पुस्तक 'नेहरू बेनकाब' से

** - *इतिहास विज्ञान है। विज्ञान सत्य है। सत्य पर तथ्यों के सहारे पहुंचा जा सकता है। शारीरिक स्वास्थ्य के लिए कड़वी दवा का सेवन और मानसिक स्वास्थ्य के लिए कड़वे सत्य का सेवन आवश्यक है। जवाहरलाल नेहरू और गांधी हमारे राष्ट्रीय संघर्ष के प्रमुख नेता थे। उनके जीवन के अध्ययन का मतलब है, राष्ट्रीय संघर्ष के इतिहास का अध्ययन। व्यक्ति आते हैं, जाते हैं, पर राष्ट्र अपनी जगह बना रहता है। उसका जीवन एक सतत बहती नदी के समान है, समय का एक अटूट क्रम है। इसलिए इतिहास की कोई प्रक्रिया अपने ही युग में समाप्त नहीं हो जाती, वह अपने बाद के इतिहास की घटनाओं और प्रक्रियाओं को प्रभावित करती रहती है। यह प्रभाव अच्छा भी हो सकता है और बुरा भी। दरअसल अच्छे - बुरे का निर्णय वर्ग - दृष्टिकोण से होता है। जिस या जिन वर्गों के हाथ में सत्ता होती है, वे अपने प्रचार के विशाल साधनों से बुरे प्रभाव को भी अच्छा कर दिखाते हैं और उसे अपने निहित स्वार्थों की रक्षा के लिए इस्तेमाल करते हैं। हमारे राष्ट्रीय संघर्ष की प्रक्रिया भी 1947 में या गांधी और जवाहर की मौत के बाद समाप्त नहीं हो गई, वह आज भी हमारे चिंतन और कर्म को न सिर्फ राजनीति के क्षेत्र में बल्कि साहित्य, संस्कृति और समाज के हर क्षेत्र में प्रभावित कर रही है। गांधी और जवाहरलाल हमारे इस राष्ट्रीय संघर्ष के नायक और उपनायक थे, इसलिए उनका व्यक्तित्व इस प्रभाव को मूर्तरूप प्रदान करता है। इसीलिए उन पर बहुत कुछ लिखा जा रहा है और लिखा जाएगा। और मैने भी इसीलिए जवाहरलाल नेहरू के जीवन का यह अध्ययन प्रस्तुत करने की ज़रूरत महसूस की। यह गांधी शताब्दी का वर्ष है और शताब्दी का उद्देश्य भी यही है कि गांधी ने राष्ट्रीय संघर्ष में जो भूमिका अदा की, उसे उजागर किया जाए। मेरा यह अध्ययन भी इसी सिलसिले की एक कड़ी है। कड़ी इसलिए है कि जवाहरलाल और गांधी एक ही रूप में हैं और जवाहरलाल के चरित्र - विश्लेषण से भी गांधी को समझने में मदद मिलती है। जवाहरलाल हमारे राष्ट्रीय संघर्ष में वामपक्ष के नेता मशहूर रहे और उनका संबंध समाजवादी विचारधारा से जोड़ा जाता है, पर हकीकत यह है कि उन्होंने बातें चाहे कुछ भी कीं, उनका व्यवहार हमेशा गांधीवाद रहा।*हंसराज रहबर की पुस्तक 'नेहरू बेनकाब' का अंश क्रमशः :-* *"जवाहरलाल नेहरू के बारे में यह बात अक्सर कही जाती है कि वह एक बड़े बाप के बेटे थे, इसलिए देश की राजनीति में बहुत जल्दी बहुत बड़े आदमी बन गये। इसमें शक नहीं कि मोतीलाल नेहरू के बड़ा आदमी होने से जवाहरलाल को भी बड़ा आदमी बनने में मदद मिली, लेकिन दूसरी बात जिसने उन्हें बड़ा आदमी बनाया इतिहास का रहस्य है, जिसे हम 'बाप-बेटा' परिच्छेद में उदघातित करेंगे। उनके गुण और स्वभाव को समझने के लिए उनके कुल और कुटुम्ब को समझना भी जरूरी है क्योंकि कुल और कुटुम्ब से जो संस्कार विरासत में मिलते हैं, मनुष्य अगर विशेष परिस्थितियों और संघर्षों में पड़कर उन्हें झटक न दे तो इन्हीं संस्कारों के आधार पर उसका चरित्र - निर्माण होता है। जवाहरलाल नेहरू वंश के नाते कश्मीरी पंडित थे। यह अपनी संस्कृति की विद्वता के कारण राज-दरबारों में आदर-सम्मान पाने वाला पुरोहित-वर्ग था, जिसे हम आजकल की परिभाषा में राजभक्त बुद्धिजीवी वर्ग भी कह सकते हैं। जब मुसलमानों का राज आया और फारसी दरबारी भाषा बनी तो इस वंश के लोगों ने चट फारसी पढ़ना शुरू कर दी। इसी कारण जवाहरलाल नेहरू के राजकौल नाम के एक पुरखे कोई ढाई सौ बरस पहले अठारहवीं सदी के शुरू में कश्मीर छोड़कर दिल्ली आ बसे। वह संस्कृत और फारसी के माने हुए विद्वान थे। ये मुगल साम्राज्य के पतन के दिन थे। औरंगजेब मर चुका था और फर्रुखसियर बादशाह था। एक बार जब वह कश्मीर गया तो उसकी नजर राजकौल पर पड़ी। उसी के कहने से 1716 के आस-पास कौल परिवार दिल्ली आया। बादशाह ने उन्हें एक बहुत बड़ी जागीर के अलावा, एक मकान भी दिया, जो ठीक नहर के किनारे स्थित था और इसी कारण उनका नाम 'नेहरू' पड़ा। धीरे-धीरे कौल झड़ गया और नेहरू शेष रह गया। जैसे - जैसे मुगलों का वैभव घटा नेहरू परिवार की जागीर भी घटते - घटते खत्म-सी हो गई। जवाहरलाल के परदादा लक्ष्मीनारायण नेहरू ने हवा का रुख पहचाना और उन्होंने मुगलों के बजाय अंग्रेज की नौकरी कर ली। वह दिल्ली दरबार में कम्पनी सरकार के पहले वकील नियुक्त हुए। जवाहरलाल के दादा गंगाधर नेहरू 1857 के स्वाधीनता संग्राम के कुछ पहले तक दिल्ली के कोतवाल थे। 1861 में जब वह 34 साल के जवान आदमी थे, उनकी अकाल मृत्यु हो गई। 'मेरी कहानी' में जवाहरलाल ने लिखा है, "मेरे दादा की एक छोटी तस्वीर हमारे यहां हैं, जिसमें वह - मुगलों का दरबारी लिबास पहने और हाथ में एक टेढ़ी तलवार लिए हुए हैं। उसमें वह एक मुगल सरदार जैसे लगते हैं ।  "हालांकि शक्ल-सूरत उनकी कश्मीरियों की-सी ही थी।"* (हंसराज रहबर की पुस्तक 'नेहरू बेनकाब' के 'पुरखे' नामक Chapter का अंश)* (15/8/1969 में लिखा गया हंसराज रहबर जी की पुस्तक 'नेहरू बेनकाब' में 'अपनी बात' का अंश)*

अवध बनाम लखनपुर




अवध के शाम का गवाह बन के जियो
    नवाबों के शहर में नवाब बन के जियो
          
              भूलभुलैया में  तुम ढूँढ लो ये ज़िन्दगी
                      या तो 'पहले आप' के रिवाज़ में ही जियो


                  











    दोआब का शहर गोमती के गोद मे
             चिकनकारी में सज धज के तुम भी जियो

                       भजन और अजान से गूंजता है जो शहर
                              उस लखनपुर को दिल मे बसा के जियो

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