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Thursday, April 20, 2017

हंसराज रहबर की पुस्तक 'नेहरू बेनकाब' से

** - *इतिहास विज्ञान है। विज्ञान सत्य है। सत्य पर तथ्यों के सहारे पहुंचा जा सकता है। शारीरिक स्वास्थ्य के लिए कड़वी दवा का सेवन और मानसिक स्वास्थ्य के लिए कड़वे सत्य का सेवन आवश्यक है। जवाहरलाल नेहरू और गांधी हमारे राष्ट्रीय संघर्ष के प्रमुख नेता थे। उनके जीवन के अध्ययन का मतलब है, राष्ट्रीय संघर्ष के इतिहास का अध्ययन। व्यक्ति आते हैं, जाते हैं, पर राष्ट्र अपनी जगह बना रहता है। उसका जीवन एक सतत बहती नदी के समान है, समय का एक अटूट क्रम है। इसलिए इतिहास की कोई प्रक्रिया अपने ही युग में समाप्त नहीं हो जाती, वह अपने बाद के इतिहास की घटनाओं और प्रक्रियाओं को प्रभावित करती रहती है। यह प्रभाव अच्छा भी हो सकता है और बुरा भी। दरअसल अच्छे - बुरे का निर्णय वर्ग - दृष्टिकोण से होता है। जिस या जिन वर्गों के हाथ में सत्ता होती है, वे अपने प्रचार के विशाल साधनों से बुरे प्रभाव को भी अच्छा कर दिखाते हैं और उसे अपने निहित स्वार्थों की रक्षा के लिए इस्तेमाल करते हैं। हमारे राष्ट्रीय संघर्ष की प्रक्रिया भी 1947 में या गांधी और जवाहर की मौत के बाद समाप्त नहीं हो गई, वह आज भी हमारे चिंतन और कर्म को न सिर्फ राजनीति के क्षेत्र में बल्कि साहित्य, संस्कृति और समाज के हर क्षेत्र में प्रभावित कर रही है। गांधी और जवाहरलाल हमारे इस राष्ट्रीय संघर्ष के नायक और उपनायक थे, इसलिए उनका व्यक्तित्व इस प्रभाव को मूर्तरूप प्रदान करता है। इसीलिए उन पर बहुत कुछ लिखा जा रहा है और लिखा जाएगा। और मैने भी इसीलिए जवाहरलाल नेहरू के जीवन का यह अध्ययन प्रस्तुत करने की ज़रूरत महसूस की। यह गांधी शताब्दी का वर्ष है और शताब्दी का उद्देश्य भी यही है कि गांधी ने राष्ट्रीय संघर्ष में जो भूमिका अदा की, उसे उजागर किया जाए। मेरा यह अध्ययन भी इसी सिलसिले की एक कड़ी है। कड़ी इसलिए है कि जवाहरलाल और गांधी एक ही रूप में हैं और जवाहरलाल के चरित्र - विश्लेषण से भी गांधी को समझने में मदद मिलती है। जवाहरलाल हमारे राष्ट्रीय संघर्ष में वामपक्ष के नेता मशहूर रहे और उनका संबंध समाजवादी विचारधारा से जोड़ा जाता है, पर हकीकत यह है कि उन्होंने बातें चाहे कुछ भी कीं, उनका व्यवहार हमेशा गांधीवाद रहा।*हंसराज रहबर की पुस्तक 'नेहरू बेनकाब' का अंश क्रमशः :-* *"जवाहरलाल नेहरू के बारे में यह बात अक्सर कही जाती है कि वह एक बड़े बाप के बेटे थे, इसलिए देश की राजनीति में बहुत जल्दी बहुत बड़े आदमी बन गये। इसमें शक नहीं कि मोतीलाल नेहरू के बड़ा आदमी होने से जवाहरलाल को भी बड़ा आदमी बनने में मदद मिली, लेकिन दूसरी बात जिसने उन्हें बड़ा आदमी बनाया इतिहास का रहस्य है, जिसे हम 'बाप-बेटा' परिच्छेद में उदघातित करेंगे। उनके गुण और स्वभाव को समझने के लिए उनके कुल और कुटुम्ब को समझना भी जरूरी है क्योंकि कुल और कुटुम्ब से जो संस्कार विरासत में मिलते हैं, मनुष्य अगर विशेष परिस्थितियों और संघर्षों में पड़कर उन्हें झटक न दे तो इन्हीं संस्कारों के आधार पर उसका चरित्र - निर्माण होता है। जवाहरलाल नेहरू वंश के नाते कश्मीरी पंडित थे। यह अपनी संस्कृति की विद्वता के कारण राज-दरबारों में आदर-सम्मान पाने वाला पुरोहित-वर्ग था, जिसे हम आजकल की परिभाषा में राजभक्त बुद्धिजीवी वर्ग भी कह सकते हैं। जब मुसलमानों का राज आया और फारसी दरबारी भाषा बनी तो इस वंश के लोगों ने चट फारसी पढ़ना शुरू कर दी। इसी कारण जवाहरलाल नेहरू के राजकौल नाम के एक पुरखे कोई ढाई सौ बरस पहले अठारहवीं सदी के शुरू में कश्मीर छोड़कर दिल्ली आ बसे। वह संस्कृत और फारसी के माने हुए विद्वान थे। ये मुगल साम्राज्य के पतन के दिन थे। औरंगजेब मर चुका था और फर्रुखसियर बादशाह था। एक बार जब वह कश्मीर गया तो उसकी नजर राजकौल पर पड़ी। उसी के कहने से 1716 के आस-पास कौल परिवार दिल्ली आया। बादशाह ने उन्हें एक बहुत बड़ी जागीर के अलावा, एक मकान भी दिया, जो ठीक नहर के किनारे स्थित था और इसी कारण उनका नाम 'नेहरू' पड़ा। धीरे-धीरे कौल झड़ गया और नेहरू शेष रह गया। जैसे - जैसे मुगलों का वैभव घटा नेहरू परिवार की जागीर भी घटते - घटते खत्म-सी हो गई। जवाहरलाल के परदादा लक्ष्मीनारायण नेहरू ने हवा का रुख पहचाना और उन्होंने मुगलों के बजाय अंग्रेज की नौकरी कर ली। वह दिल्ली दरबार में कम्पनी सरकार के पहले वकील नियुक्त हुए। जवाहरलाल के दादा गंगाधर नेहरू 1857 के स्वाधीनता संग्राम के कुछ पहले तक दिल्ली के कोतवाल थे। 1861 में जब वह 34 साल के जवान आदमी थे, उनकी अकाल मृत्यु हो गई। 'मेरी कहानी' में जवाहरलाल ने लिखा है, "मेरे दादा की एक छोटी तस्वीर हमारे यहां हैं, जिसमें वह - मुगलों का दरबारी लिबास पहने और हाथ में एक टेढ़ी तलवार लिए हुए हैं। उसमें वह एक मुगल सरदार जैसे लगते हैं ।  "हालांकि शक्ल-सूरत उनकी कश्मीरियों की-सी ही थी।"* (हंसराज रहबर की पुस्तक 'नेहरू बेनकाब' के 'पुरखे' नामक Chapter का अंश)* (15/8/1969 में लिखा गया हंसराज रहबर जी की पुस्तक 'नेहरू बेनकाब' में 'अपनी बात' का अंश)*

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